संविदा कर्मियों का दर्द

 


संविदा कर्मियों का दर्द
कोई क्यों नहीं समझता
दर्द हमारा
हम भी इंसान हैं
योगदान भी है हमारा

सरकारी हो या निजी
 कैसा भी हो दफ्तर
हम काम कर रहे 
बिना थक कर. 

 परमानेंट मौज ले रहे, 
काम अपना थोप कर
संविदा कर्मी पिस रहे 
परमानेंट की धौंस पर

 मुंह खोलना भी लाजिम नहीं
फैसला हो जाता तुरंत
कभी घट जाती सैलरी
या नौकरी भी जाती रही

 कौन समझेगा दर्द हमारा
अधिकारी मस्त 
संविदा कर्मी मिल गया
सस्ते में मारा

 हड़ताल की करो बात 
तो मिल जाता है लॉलीपॉप
कि जल्द ही करते हैं कुछ
पर होता कुछ है नहीं 
संविदा कर्मी घुट घुट कर जी रहा यूं ही

सच बात तो यह है 
दुगना काम कर भी 
कुछ हासिल नहीं

गर संविदा कर्मी ना हो
तो ना चल सकता कोई ऑफिस
हो जाएगी बहुत ही मुश्किल
जो चले गए ये छोड़कर ऑफिस।।
गरिमा लखनवी

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