संदेश

हां, मैं औरत हूं

  हां, मैं औरत हूं, जो खुद के बारे में नहीं सोचती, हर किसी की ख्वाहिशें पूरी करना जिसका मकसद बन गया है। मां बनकर, बहन बनकर, बेटी बनकर, सबके हिस्से के फ़र्ज़ निभाती हूं, पर मेरी कौन सुनता है, ये सवाल अक्सर खामोश रह जाता है। दर्द मुझे भी होता है, पर इसकी परवाह कौन करता है? पूरे घर के लिए जीती हूं मैं, बीमार पड़ जाऊं तो भी मेरा हाल कोई नहीं समझता है। हां, मैं औरत हूं, ऑफिस जाकर काम करना मेरी मजबूरी है, घर संभालना मेरी जिम्मेदारी है, सबका ख्याल रखना मेरा कर्तव्य मान लिया गया है। पर मेरे बारे में कोई ना सोचे— ये सबकी आदत बन चुकी है। हां, मैं औरत हूं, दिन-रात की परवाह किए बिना सबको खुश करने में लगी रहती हूं, हर रिश्ता मुझे ही निभाना है, क्योंकि… मैं औरत हूं। गरिमा लखनवी 

अटल बिहारी बाजपेई जन्मदिवस

 अटल जी को शत्-शत् प्रणाम 25 दिसंबर 1924 को जन्मे, भारत के प्रधानमंत्री पद को सुशोभित किया, ओजस्वी कवि, प्रखर वक्ता, जिन्होंने शब्दों से भी राष्ट्र को शक्ति दी। देश–विदेश में भारत का मान बढ़ाया, भारत को परमाणु शक्ति राष्ट्र बनाया, भारत–पाक रिश्तों में संवाद की राह खोली, शांति का संदेश दुनिया तक पहुँचाया। अनेकों योजनाओं का किया शुभारंभ, मजबूत नींव पर खड़ा किया भारत का भविष्य, विकास, स्वाभिमान और सुशासन— आपकी पहचान बने जीवन भर। आज आपकी स्वर्ण शताब्दी मना रहा है देश, हर हृदय में गूंजती हैं आपकी कविताएँ, आओ, इस जन्मदिवस को बनाएं विशेष, याद करें उस युगपुरुष को श्रद्धा से। अटल जी, आपको मेरा शत्-शत् प्रणाम। 🙏 गरिमा लखनवी 

मदर टेरेसा

मदर टेरेसा— जिन्हें संत की उपाधि से नवाज़ा गया, 26 अगस्त 1910 को स्कोप्जे, उत्तरी मेसेडोनिया में इस धरती पर उनका अवतरण हुआ। अठारह वर्ष की अल्प आयु में घर–परिवार त्यागकर सेवा का संकल्प लिए वे भारत की धरती पर आईं। तीन सिद्धांतों पर टिकी थी उनकी दुनिया— अच्छे कर्म, जीवन के उच्च मूल्य और सामुदायिक भावना। सन् 1950 में कोलकाता में उन्होंने “मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी” की स्थापना की, जहाँ से करुणा, सेवा और प्रेम दुनिया भर में फैलने लगे। गरीबों, भूखों, बीमारों और बेसहारा लोगों की सेवा में उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित किया, इसी कारण वे विश्वभर में सम्मानित हुईं। मदर टेरेसा दुखियों के लिए आशा की किरण बनीं, और सन् 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त किया। सन् 1980 में भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया। 5 सितंबर 1997 को वे इस नश्वर संसार से विदा हो गईं, पर उनकी करुणा, सेवा और मानवता आज भी जीवित है। ऐसी महान आत्मा को मेरा शत्-शत् नमन।  गरिमा लखनवी

नौसेना दिवस

 समंदर की लहरों का जो रखवाला है, वो भारत मां का शौर्य, उसका उजाला है। 5600 वर्षों का गौरवशाली इतिहास लिए, नौसेना ने देश का मान संभाला है। सभ्यता के प्रहरी, संस्कृति के रक्षक, हर तूफ़ान में डटे, सीमाओं के संरक्षक। नौसेना दिवस हमारे गर्व का सम्मान है, वीरों के साहस का अमर गान है। 1971 की विजय का स्वर्णिम अध्याय, जहाँ पर शौर्य ने दिखाया असली आकार। वह जीत आज भी राष्ट्र का शौर्यगान है, भारत का सीना गर्व से विस्तृत आसमान है। INS खुखरी का बलिदान नहीं भूलेगा देश, हर जलधारा में उसकी गूँज रहे विशेष। उसका साहस, उसकी जंग की दिलेरी, आज भी नौसैनिकों की प्रेरणा बनी खड़ी है। हमें अपनी नौसेना पर गर्व महान है, ये राष्ट्र का गौरव है, यही पहचान है। शत-शत नमन उन वीरों को, जो समंदर की लहरों पर लिखते विजय की दास्तान हैं।  गरिमा लखनवी

पाक सेना का आत्मसमर्पण

16 दिसंबर की सुबह गवाही देती है, जब दुश्मन के 93,000 सैनिक हथियार डालते हैं, वह दिन विजय दिवस बनकर हर भारतीय की धड़कन में बजता है। भारत माता के वीर सपूत, आज भी सीना ताने खड़े हैं— उनकी रगों में शौर्य बहता है, उनकी नज़रों में तिरंगा लहरता है। पर पाक अपने छल से नहीं सुधरता, वह भूल जाता है— कि भारत की शांति कमजोरी नहीं, बल्कि संयम की सीमा है। ऐ रणबांकुरो, उठो! माँ भारती ने हुंकार भरी है, बहुत सह लिया निर्दोषों का लहू, अब प्रतिकार की बारी है। कितने सपने अधूरे सो गए, माताओं की गोद उजड़ गई, बहनों की आँखें नम हो गईं, अब यह ऋण चुकाने की घड़ी है। शांति की भाषा जिसे सुनाई नहीं देती, दया का मोल जो समझता नहीं, उस पर दया कैसा? जिसने देश की गोद को श्मशान बनाया है। अब समय आया है— उसे उसकी हकीकत दिखाने का, क्योंकि इतिहास लिखता है, भारत सिर्फ लड़ता नहीं, भारत जीतता है… और विजय दिवस मनाता है ।। गरिमा लखनवी

क्या खोया, क्या पाया

जीवन की इस आपाधापी में, क्या खोया, क्या पाया हमने, आओ करें आकलन इसका, थोड़ा मन को टटोलें हमने। बचपन बीता खेलकूद में, हंसी-खुशी की छाँव में, वे सुनहरे दिन लौट न पाए, स्मृतियाँ रह गईं गाँव में। जवानी गई मौज-मस्ती में, सबकी इच्छा पूरी करते-करते, अपनी चाहत भूल ही बैठे, ख्वाहिशें दबा दीं मन के धरते। अब आया है बुढ़ापा यारों, सोचा भागवत भजन करेंगे, पर मोह-माया की डोरी में, फँसकर बस चिंतन ही करेंगे। क्या खोया और क्या पाया, सोचा तो बस इतना जाना— जीवन है पानी का बुलबुला, क्षण भर में मिट जाना। जिसने थामकर चलना सिखाया, उसी का हाथ छोड़ दिया, जीवन की तंग गलियों में आकर, अपनों का साथ खो दिया। जीवन की इस आपाधापी में, क्या पाया और क्या गंवाया हमने… गरिमा लखनवी

सच्चा सुख

  सुख क्या है, यह कोई नहीं जानता। किसी को धन में सुख दिखता है, किसी को घर-परिवार की खुशी, किसी को नौकरी में चैन मिलता है, पर सच्चा सुख क्या होता है, यह कोई नहीं जानता। सच्चा सुख तो मन की शांति है, जिसे पाने को सब दौड़ रहे हैं, पर संतोष का धन आज किसी के पास नहीं है। सच्चा सुख तब है, जब किसी चेहरे पर मुस्कान आ जाए, जब किसी को थोड़ी-सी मदद मिल जाए। सच्चा सुख तब है, जब किसी की ज़िंदगी संवर जाए, जब किसी का दर्द कम हो जाए। पर अफसोस— सच्चा सुख सब खोज रहे हैं, मगर यह नहीं समझते कि वह बाहर नहीं, हमारे भीतर ही छिपा है। — गरिमा लखनवी