क्या खोया, क्या पाया



जीवन की इस आपाधापी में,

क्या खोया, क्या पाया हमने,

आओ करें आकलन इसका,

थोड़ा मन को टटोलें हमने।


बचपन बीता खेलकूद में,

हंसी-खुशी की छाँव में,

वे सुनहरे दिन लौट न पाए,

स्मृतियाँ रह गईं गाँव में।


जवानी गई मौज-मस्ती में,

सबकी इच्छा पूरी करते-करते,

अपनी चाहत भूल ही बैठे,

ख्वाहिशें दबा दीं मन के धरते।


अब आया है बुढ़ापा यारों,

सोचा भागवत भजन करेंगे,

पर मोह-माया की डोरी में,

फँसकर बस चिंतन ही करेंगे।


क्या खोया और क्या पाया,

सोचा तो बस इतना जाना—

जीवन है पानी का बुलबुला,

क्षण भर में मिट जाना।


जिसने थामकर चलना सिखाया,

उसी का हाथ छोड़ दिया,

जीवन की तंग गलियों में आकर,

अपनों का साथ खो दिया।


जीवन की इस आपाधापी में,

क्या पाया और क्या गंवाया हमने…

गरिमा लखनवी

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