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क्या खोया, क्या पाया

जीवन की इस आपाधापी में, क्या खोया, क्या पाया हमने, आओ करें आकलन इसका, थोड़ा मन को टटोलें हमने। बचपन बीता खेलकूद में, हंसी-खुशी की छाँव में, वे सुनहरे दिन लौट न पाए, स्मृतियाँ रह गईं गाँव में। जवानी गई मौज-मस्ती में, सबकी इच्छा पूरी करते-करते, अपनी चाहत भूल ही बैठे, ख्वाहिशें दबा दीं मन के धरते। अब आया है बुढ़ापा यारों, सोचा भागवत भजन करेंगे, पर मोह-माया की डोरी में, फँसकर बस चिंतन ही करेंगे। क्या खोया और क्या पाया, सोचा तो बस इतना जाना— जीवन है पानी का बुलबुला, क्षण भर में मिट जाना। जिसने थामकर चलना सिखाया, उसी का हाथ छोड़ दिया, जीवन की तंग गलियों में आकर, अपनों का साथ खो दिया। जीवन की इस आपाधापी में, क्या पाया और क्या गंवाया हमने… गरिमा लखनवी

सच्चा सुख

  सुख क्या है, यह कोई नहीं जानता। किसी को धन में सुख दिखता है, किसी को घर-परिवार की खुशी, किसी को नौकरी में चैन मिलता है, पर सच्चा सुख क्या होता है, यह कोई नहीं जानता। सच्चा सुख तो मन की शांति है, जिसे पाने को सब दौड़ रहे हैं, पर संतोष का धन आज किसी के पास नहीं है। सच्चा सुख तब है, जब किसी चेहरे पर मुस्कान आ जाए, जब किसी को थोड़ी-सी मदद मिल जाए। सच्चा सुख तब है, जब किसी की ज़िंदगी संवर जाए, जब किसी का दर्द कम हो जाए। पर अफसोस— सच्चा सुख सब खोज रहे हैं, मगर यह नहीं समझते कि वह बाहर नहीं, हमारे भीतर ही छिपा है। — गरिमा लखनवी

राम जीवन

विष्णु के सप्तम अवतार, त्रेता युग में जन्मे राम, इक्ष्वाकु कुल की शोभा बढ़ाई, बन गए मर्यादा पुरुषोत्तम नाम। पिता के वचन की रक्षा की, चौदह वर्ष वनवास निभाया, धर्म-पालन के मार्ग पर चलकर, आदर्श मानव कहलाया। वनवास में ऋषि-मुनियों को, अधर्म से मुक्त कराया, रावण के अन्याय मिटाने, धनुष उठा संहार कराया। समुद्र पर सेतु बनाकर, लंका तक सेना को ले आए, अधर्म का अंत कर रावण से, सीता जी को वापस लाए। ग्यारह सहस्त्र वर्ष अयोध्या में, रामराज्य का राज बसाया, धर्म, न्याय और सत्य की छाया, हर प्रजा सुखी बनाया। लव-कुश को राज्य सौंपकर, बैकुंठ धाम को चले गए, सियाराम के नाम का जयघोष, युग-युगांतर तक गूँज गए। बोलो सियाराम चंद्र की जय  गरिमा पंत