इंसान बटता चला गया

धरती अम्बर एक सी लहू भी सबका एक का सा
फिर भी इंसान क्यों बटता चला गया
सरहदे बट गयी दिलो पे लकीरे खिच गयी
फिर भी इंसान बटता  चला गया
धर्म बट गया जाति बात गयी
खून सबका लाल ही रहा
सब एक ही है धरती के लाल है
पर सबके दिल में अंगार है
क्यों नफरत बढ़ रही है दिलो में
सब इससे परेशान है
इंसान क्या करे बेचारा
वो भी परेशान है
कितना बाँटो गे दिलो को नफरत के जंजीर से
क्यों नहीं घोलते सबके दिलो में
प्यार की जंजीर
उस प्यार से रंग जाये
सबके दिलो में घर कर जाये
राम अल्लाह की जमी को
मुस्कराहट से भर जाये
न बाँटो तुम इंसान को
न बाँटो  तुम भगवान को
गरिमा 

टिप्पणियाँ

ज्योति-कलश ने कहा…
सार्थक चिंतन
Kailash Sharma ने कहा…
बहुत सुन्दर और सारगर्भित रचना...

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