बेटी नहीं पराया धन नहीं

बेटी पावन दुआएँ है
माँ की आस है बेटी
पापा का दुलार है बेटी
जो आने अपर थकान उतार  दे बेटी
ऐसी भोली सी पहचान है बेटी
बेटी न हो तो घर है  सूना
घर की पहचान है बेटी
हर रंग में रगने वाली
सबके दिलो की जान है बेटी
फिर क्यों बेटी को न समझा जाता
क्यों पैरों से रोंदी जाती
क्यों उनका दर्द न समझा जाता
जब होती है वो विदा घर से
क्यों पापा का दिल भर जाता
ससुराल में क्यों नहीं समझा जाता
बेटी बहु बनते ही
क्यों उनका मान न होता
बेटी और बहु में क्या अंतर
बेटी जब होती पापा के घर में
तो माँ क्यों कहती बेटी है पराया धन
बेटी कभी परायी न होती
दोनों घर का मान है बेटी
बेटी को न समझो कम
सबका है मान है बेटी
गरिमा

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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-05-2017) को "देश निर्माण और हमारी जिम्मेदारी" (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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